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नवंबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नमाज पढ़ते वक्त पैंट को समेटने (फोल्ड करने) का बयान

ro    बोहत सी हदीस है जो नमाज के वक्त पैंट को मोड़ने से मना करती है। इब्न अब्बास र.अ. रिवायत करते हैं कि रसूलल्लाह ﷺ ने फरमाया: 'मुझे हुक्म दिया गया है के मुख्य ७ हदियों पर सजदा करूं पेशानी और आप ने हाथ से नाक की तरफ इशारा किया दोनों हाथों दोनों घुटनों और दोनों क़दमों के पंजों पर और (ये के हम नमाज़ में) अपने कपड़ों और बालों को  इखट्टा ना करें।' (बुखारी: अल अज़ान 812 - मुस्लिम: अल सलाह 490)। कपड़ो को इखट्टा करने का मतलब यह है कि कपड़े को मोड़ना हमें जमीन पर गिरने से रोकने के लिए जब कोई सजदा करता है। इमाम अन-नवावी फ़रमाते हैं: उलेमाओ का इसपर इत्तिफाक है कि अपने कपड़े, आस्तीन वगैरा मोड़ना की इजाज़त नहीं है। उलमाओ के इज्मा से इस चीज़ की इजाज़त नहीं है; ये मकरूह है और साथ-साथ ये ना-पसंददा है। तो अगर कोई शक्स इस हालत में नमाज पढ़ता है तो उसने जैसा कुछ गलत किया है लेकिन फिर भी उसकी नमाज हो जाएगी। इब्न अल-मुंदिर रिवायत करते हैं कि जो ऐसा करता है तो अपनी नमाज़ दोहरानी चाहिए और उनको ये रए अल-हसन अल-बसरी से रिवायत की है। अंत उद्धरण तुहफ़त अल-मिन्हाज, २/१६१-१६२ में ये कहा गया है: जो नमाज प

नखुन तराशने के बाद दफ़न करना

ro    सावल: क्या ये सही है कि नाखुन तराशने के बाद फेंकना हराम है और क्या इन्हें दफ़न करना ज़रूरी है? जवाब:- नाख़ून तराशना मशरू है क्योंकि नकुन तराशना फ़ितरती क़हसलात में शामिल होता है और तराशने के बाद इन्हें फेंकने में कोई हर्ज नहीं। और इन्हें दफ़न करना ज़रूरी नहीं है। और अगर वो इसे कूड़ेदान में फेंक दे, या फिर दफ़न करदे तो इसमें कोई हर्ज नहीं। (फतवा अल-लजनाह अद-दायमा ली बुहुथ अल-इल्मियाह वाल इफ्ता (५/१७४)। अक्सर हमारे भारत, पाकिस्तान और इनसे जुड़े हुए मुल्कों में पाया जाता है कि नाखून या बाल को सिर्फ दफन करना चाहिए इसे ऐसे ही कहीं भी फेंकना चाहिए। और कुछ लोग ये भी कहते हैं कि मगरिब के बाद ये चीज़ ना कटी जाए। ये महज़ एक ग़लत फ़हमी है। दीन ए इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन अगर ये डर हो के ये नाखुन या बाल जादूगरों के हटे चढ़ जाएंगे तो फिर इन्हें वहां फेंके या दफ़न करे जहां से ये उनके हाथ ना लगे। (वल्लाहु आलम)

क्या गैर-मुसलमानों को कुर्बानी का गोश्त दे सकता है?

ro    गैर-मुसलमानों को कुर्बानी के गोश्त देने में कोई बुराई नहीं है, खास कर जब वो आपका रिश्तेदार या पड़ोसि या कोई गरीब हो सिवाए उनको जो मुसलमानो से जंग करते हो। ये बात इस आयत से पता चलती है: ۩ 'जिन लोगों ने तुम से दीन के बारे में कहा कि मैं लड़ी नहीं लारी और तुम्हें जिला वतन नहीं किया उन्न के साथ सलूक-ओ-एहसान करनी और मुंसिफाना भलाई बरताओ कहना अल्लाह ताला तुम्हें नहीं रोकता बलके अल्लाह ताला तो इन्साफ करने वालों से मोहब्बत करता है है.' सूरह मुमतहिना ﴾ ६० ﴿, आयत- ८. अनलोगो को कुर्बानी का गोश्त देना उनके साथ इन्साफ करना और उन्हें सिलरहमी के पशेमंजर में आता है जिसकी अल्लाह ने हमें इजाज़त दी है। ۩ मुजाहिद रिवायत करते हैं कि एक भेड़ा (भेड़) अब्दुल्ला इब्न अम्र के लिए क़ुर्बान किया था उनके परिवार के एक शक्स ने, और जब वो (अब्दुल्ला इब्न अम्र) ऐ, उन्होन फरमाया: क्या तुमने मेरे अंदर कुछ हमारे याहुदी पड़ोस को दिया, क्या तुमने कभी हमारे यहुदी पड़ोसि को दिया? क्योंकि मैंने रसूलल्लाह ﷺ से ये फरमाते हुए सुना है कि, "जिब्रील मुसलसल मुझे पड़ोसियो से सिलरहमी करने की हिदायत करते रहे यहां तक ​

वित्र के बाद के नवाफ़िल- एक इल्मी बात

ro    ۩ अगरचे बाज़ रिवायत में वित्र को रात की आखिरी नमाज़ क़रार दिया गया है जैसा के हज़रत इब्न ए उमर र.अ. से मारवी है के रसूल ﷺ ने फरमाया,  "वित्र को अपनी रात की आखिरी नमाज बनाओ।" सहीह अल बुखारी, किताब अल वित्र ﴾१४﴿, हदीस-९९८. लेकिन दर्ज़ ज़ेल सही हदीथ से मालूम होता है के ये हुक्म महेज़ इस्तेहजाब के लिए है मतलब मुस्तहब है लेकिन फ़र्ज़ नहीं है और आप वित्र के बाद भी दो रकअत अदा फरमा लिया करते थे। ۩ हज़रत उम्म ए सलमा र.अ से मारवी है के "रसूल ﷺ वित्र के बाद २ रकातें पढ़ा करते थे।" तिर्मिज़ी, हदीस-२९२, सुन्नन इब्न माजा, हदीस-११९५। इस लिए अगर कोई शख़्स वित्र पढ़ कर सोजाए फिर के पिछले पहर उठ कर नवाफिल अदा करे तो वो आख़िर में दोबारा वित्र नहीं पढ़ेगा क्यू की हज़रत तलक़ इब्न अली से मरवी है के रसूल ﷺ ने फरमाया, "एक रात में दो वित्र नहीं है" . तिर्मिज़ी, हदीस-४७०, सुन्नन अबू दाऊद, हदीस-१४३९, सनद सहीह। ۩ इमाम अहमद, इमाम शाफ़ेई, इमाम मालिक, इमाम सूरी, इमाम इब्न ए मुबारक और इमाम इब्न ए हज़म का यही वक्फ है और यही राजे और है। तोहफ़ा अल हौज़ी # ५८८/२, नील उल अवतार # २५९/२,

मुसाफ़ा एक हाथ से या दो हाथ से?

ro    सही हदीसों की रोशनी में दोनों तरह से मुसाफ़ा करना सही है। हम दोनों तरीको से मुसाफा करने की कोशिश करते हैं। इमाम बुखारी र. अ का भी यही अकीदा था।  सब से पहले हम दो हाथ से मुसाफा करने की कोशिश करते हैं। मैं याहा इमाम बुखारी र.ह. का तर्ज़-ए-इस्तादलाल बयान करता हूँ। इमाम बुखारी रह. ने पहले एक बाब बंदा- "بَابُ المُصَافَحَةِ" यानि मुसाफा का बयान। क्या मैं इमाम बुखारी रह.ह. हूं? ने तीन (३) हदीस नकल की। फिर इस के बाद एक और बाब बांधा- "بَابُ الأَخْذِ بِاليَدَيْنِ" यानी २ हाथ से पकड़ने का बयान। दूसरे बाब के साथ ही इमाम बुखारी रह. ने सलाफ का एक अमल बयान किया और कहा, وَصَافَحَ حَمَّادُ بْنُ زَيْدٍ، ابْنَ المُبَارَكِ بِيَدَيْهِ "हम्माद बिन ज़ैद र.अ.ने इब्ने मुबारक र.अ. से २ हाथों से मुसाफ़ा किया।" फ़िर इस के बाद इमाम बुखारी र.अ ने ये हदीस नकल की है, حَدَّثَنَا أَبُو نُعَيْمٍ، حَدَّثَنَا سَيْفٌ، قَالَ سَمِعْتُ مُجَاهِدًا، يَقُولُ حَدَّثَنِي عَبْدُ اللَّهِ بْنُ سَخْبَرَةَ أَبُو مَعْمَرٍ، قَالَ سَمِعْتُ ابْنَ مَسْعُودٍ، يَقُولُ عَلَّمَنِي رَسُولُ اللَّهِ صلى الله علي

गुम्बद-ए-खिजरा - इसके अहकाम और इसको तबाह ना करने की वजह

ro    रसूलअल्लाह ﷺ के कब्र के ऊपर बनी हुई इमारत को गुम्बद-ए-खिजरा कहते हैं। ये गुंबद सातवीं (७वीं) सदी में बन गई थी। क्या गुम्बद को बादशाह अल-ज़ाहिर अल-मंसूर क़लावुन अल-सालिही ने ६७८ एएच में बनाया था। और सबसे पहले ये लकड़ी के रंग का था, फिर ये सफेद रंग का हुआ और फिर नीला और फिर ये सब्ज़ (हरा) रंग का हुआ और अब तक वो इसी रंग का है। ۞ गुम्बद के अहकाम है: उलेमा ए किराम माज़ी और जदीद डोनो मैं इस गुम्बद को बनाने में और इसको रंगने की टंकी (आलोचना) करता हूं। क्या सबकी वाजे यही है कि कहीं ये शिर्क के दरवाजे ना खोल दे। हाफ़िज़ अल-सनानी (रहीमुल्लाह) ता-थीर अल-एतिकाद में कहते हैं: "فإن قلت : هذا قبرُ الرسولِ صلى اللهُ عليه وسلم قد عُمرت عليه قبةٌ عظيمةٌ انفقت فيها الأموالُ . قلتُ : هذا جهلٌ عظيمٌ بحقيقةِ الحالِ ، فإن هذه القبةَ ليس بناؤها منهُ صلى اللهُ عليه وسلم ، ولا من أصحابهِ ، ولا من تابعيهم ، ولا من تابعِ التابعين ، ولا علماء الأمةِ وأئمة ملتهِ ، بل هذه القبةُ المعمولةُ على قبرهِ صلى اللهُ عليه وسلم من أبنيةِ بعضِ ملوكِ مصر المتأخرين ، وهو قلاوون الصالحي المعروف بالملكِ المنصورِ في سنةِ

ख़ाते वक़्त सलाम करने के अहकाम

ro    खाते वक्त सलाम करने में कोई हर्ज नहीं है, सुन्नत में ऐसा कुछ है जो कहता है कि ये अमल की इज्जत नहीं है। ये दूर तक फेल हुई अफ़वाह है कि खाने के वक़्त सलाम नै करना चाहिए ("ला सलाम 'अला ता'आम") या सलाम का जवाब नै देना चाहिए। अल-'अजलूनी (रहीमुल्लाह) ने कशफ अल-खफा' में कहा: (ये जुमला) खाने के वक्त सलाम नहीं करना चाहिए ये हदीस नहीं है। अंत उद्धरण. कुछ उलेमा ने कहा है कि खाना खाते वक्त हाथ नई मिला सकता है लेकिन सलाम करने में कोई हर्ज नई है। इमाम नवावी (रहीमुल्लाह) अल-अधकार में फरमाते हैं। इसकी एक मिसाल कुछ ऐसी है कि अगर कोई खा रहा हो और हमारे मुंह में निवाले हो, अगर कोई उसे सलाम करता है तो वो सलाम के जवाब का मुश्तहिक नहीं है। लेकिन अगर वो खाना खा रहा हो और उसके मुंह में निवाले न हो तो उसको सलाम का जवाब देना चाहिए। शेख 'अब्द अल-रहमान अल-सुहैम (रहीमुल्लाह) कहते हैं: ये कलाम लोगों की बात है और कोई हदीस नहीं है। इसका मतलब सही है अगर ये हाथ मिलाने के पशेमंजर में कहा गया है लेकिन अगर ये सिर्फ सलाम कहने के लिए मेरे पास है तो ये मन नई है जब कोई खा रहा हो। अंत उद्धरण

रसूलअल्लाह ﷺ की जनाज़ा की नमाज़

ro    अक्सर मुस्लिम उम्मत के आम लोगों के बीच ये सवाल रहता है कि रसूल अल्लाह ﷺ की जनाज़ा की नमाज़ हुई थी या नहीं। और जो लोग ये कहते हैं कि उनके जनाज़े की नमाज़ नहीं हुई थी वो उन सारी हदीसों से बहुत दूर थी और बा-ख़बर है जिन हदीसों में दर्ज़ है कि साहबाओं ने रसूलल्लाह ﷺ की जनाज़े की नमाज़ पढ़ी थी। याह्या रिवायत करते हैं कि उनहोंने मालिक से सुना है कि उनहोंने सुना है पीर (सोमवार) को रसूलअल्लाह ﷺ की वफ़ात हुई थी और उनके मंगल (मंगलवार) को दफ़न किया गया था और लोगों ने अकेले ही उन के जनाज़े की नमाज पढ़ी बिना किसी इमाम के ।  मुवत्ता मालिक» दफ़नाने की किताब » किताब १६, हदीस २७। हज़रत इब्न अब्बास र.अ. रिवायत करते हैं ...और फिर लोग ग्रोह में आए और रसूलअल्लाह ﷺ की जनाज़े की नमाज पढ़ी, और जब वो पढ़ चुके तो ख्वातीन आई और जब इनहोन पढ़ना खत्म कर दिया तब बच्चे ऐ और किसी ने इस नमाज की इमामत नहीं की। सुनन इब्न माजा, अंत्येष्टि के संबंध में अध्याय, हदीस १६२८। सुनन इब्न माजा, अंत्येष्टि के संबंध में अध्याय, हदीस 1628। इमाम तिर्मिधि अल-शमाएल (पृ. 338) मुझे रिवायत करते हैं, "रसूल अल्लाह ﷺ का इंतकाल 12वीं

वो दुरी जिस से मस्जिद में नमाज पढ़ना फ़र्ज़ हो

ro    अल्हम्दुलिल्लाह.. मस्जिद के करीब रहने वाले पर नमाज़ बज़ामात फ़र्ज़ है और दूर रहने वाले पर फ़र्ज़ नहीं है। और सुन्नत ए नबवी में ये फ़ासला अज़ान की आवाज़ सुनाई देने पर मुन्हासिर (निर्भर) है। यानी अगर अजान की आवाज सुनाई देती है तो जमात से पढ़ना फर्ज होगा वरना नहीं और इस मुराद ये है कि मस्जिद में होने वाली अज़ान बिना लाउड स्पीकर के सुनाई दे, और मुअज़्ज़िन अज़ान बुलंद आवाज़ से दे, और फ़िज़ा में खामोशी और सुकून हो जो सुनने पर असर अंदाज़ होती है। ۩ अबू हुरैरा र.अ. फरमाते हैं, एक नबीना साहबी (अब्दुल्ला इब्न ए उम्मे मकतूम) आए, इन्हें अपने अंधे होने का उजार पेश करके अपने घर पर नमाज पढ़ने की इजाज़त चाहिए क्योंकि इन्हें कोई मस्जिद में लेकर आने वाला नहीं था, तो नबी ने इनको इजाज़त दे दी, जब वो वापस चले तो आप ने बुलाकर पूछा, 'क्या आप अज़ान सुन सकते हैं?' अब्दुल्ला ने कहा: जी हा! आप ﷺ ने फरमाया, 'तो फिर नमाज़ में हाज़िर हो।' सहीह मुस्लिम, किताब अल मसाजिद ﴾५ ﴿, हदीस- १४८६. ۩ इब्न ए अब्बास र.अ. से रिवायत है कि रसूलअल्लाह ﷺ ने फरमाया, 'जो शक्स अजान सुन कर मस्जिद में जमात के लिए

जहेज़- एक इस्लामी नज़रिया

ro    लफ़्ज़ "जहेज़" अरबी लफ़्ज़ एच जिसकी म'आनी ह तय्यारी करना, जिस तरह सूरह यूसुफ़ में है "वा लम्मा जहज़हुम बी जिहाज़िहिम" और जेबी उन्हो ने उनके लिए समां तय्यार रखा। गोया "जहाँ" तयारी को कहते हैं और ये शादी पर जायज़ है लेकिन ये जहाज़ लड़के के ज़िम्मा है क्योंकि शादी की साड़ी तयारी उसी को करनी होती है, जिस तरह नबी ने अली आर.ए. को देखा। की ज़िरह बेच कर हमसे अली र.ए. के लिए तय्यारी की जिस को जहेज कहते हैं और ये शरई जहेज ह। लेकिन जिस को बर्र ए सगीर में जहज़ कहते हैं वो यही है कि लड़की अपने घर से वो सामान तय कर के लाती है जिस के लिए लड़के वालो की तरफ से पहले ही लिस्ट दीया गया हो गया है लेकिन इसकी शरयत में कोई हैसियत नहीं और ये लड़के की बेगैरती का सबूत है और हिंदुओं से नफरत है क्योंकि हिंदू इसे ही कन्यादान कहते हैं... कुरानी आयत और अहादीस से वाज़ेह होता है कि शादी एक सदगी का नाम है शादी से मुआशरा सुधरता है दो खानदान आबाद होते हैं, नई नसल की शुरुआत होती है। और ऐसी कोई आयत नहीं है और ना ही हदीस है जिस्मे है कि लड़की को दहेज देना चाहिए सारे दलाईल यही कार कह रह

क्या लिबास तबदील करने से वुज़ू टूट जाता है?

ro    क्या लिबास तबदील करने से मेरा वुज़ू टूट जाएगा? और क्या मर्द और औरत के मा-बेन क्या हुक्म में कोई फर्क है? अगर कोई शक्स तहरत की हालत में हो और वो अपना लिबास तबदील कर ले तो उससे वुजू नहीं टूट-ता, क्योंकि लिबास तबदील करना वुजू टूटने में शामिल नहीं, और इस में मर्द ओ औरत सब बराबर हैं। वल्लाहो आलम . वुज़ू जिन चिज़ो से टूट ता है वो ये है: १ आगे हां पिचे की शर्मगाह से खारिज होने वाले आश्ये (पिशाब, पखाना, हवा वागैरा) लेकिन औरत की काबल से खारिज होने वाले हवा से वुज़ू नहीं टूट-ता। २ आगे हां पीछे की शर्मगाह के इलावा और कहीं से पिशाब और खाना खत्म होना। ३ अक़ल ज़ाएल होना (होश-खोना), या तो मुकम्मल तौर पर अक़ल ज़ाएल हो जाए, यहीं मजनूं और पागल हो जाए, या फिर किसी सबाब के लिए कुछ देर के लिए अक़ल पर परदा पर जाए, मसलन नींद, बेहोशी, नशा, वगैरा . ४ अज़ू ई तनासुल (लिंग) को चुना : क्या दलेल बसरा बिन्त सफ़वान र.अ. की हदीस है वो बयान करती हैं कि मैंने रसूल ﷺ को ये फरमाते हुए सुना: "जिस ने अज़ू ए तनासुल को चुवा वो वुज़ू करे" सुनन अबू दाऊद, अल-तहाराह, १५४. ५ ऊंट (ऊंट) का गोश्त खाना: इस की दलील, जाब

ज़ुल हिज्जा के शुरू के १० दिन में घर वालो के लिए नाखुन या बाल काटने के अहकाम

ro    सवाल जब मर्द ने कुर्बानी करनी हो तो क्या हमारी बीवी और बच्चों के लिए ज़ुल हिज्जा का चांद नज़र आने के बाद अपने बाल और नाखुन वगेरा कटने जैसी है? अल्हम्दुलिल्लाह.. जी हां ऐसा करना जरूरी है. कुर्बानी करने वाला शक्स के लिए अपना बाल या नाकुन या जिस्म के किसी भी तरह से कुछ कहना हराम है और ये हुक्म सिर्फ कुर्बानी करने वाले के साथ खास है जो नई कुर्बानी करनी हो। आप इस तफ़सील को यहाँ देख सकते हैं शेख इब्न बाज़ रहिमहुल्लाहु ताला का कहना है, और कुर्बानी करने वाले के अहल ओ अयाल पर कुछ नहीं, और उलमा ए करम के सही क़ौल के मुताबिक़ इन्हें बाल और नाखुन कटना मना नहीं किया जाएगा। बलके ये हुक्म तो सिर्फ कुर्बानी करने वाले के साथ खास है जिसने अपने माल में से कुर्बानी खरीदी है। फतावा इस्लामिया, २/३१६. और, फतावा अल-लजनाह अल-दैइमा (११/३९७) के फतवे में है की, जो शक्स कुर्बानी करना चाहे इस के हक में ये मशरू है के वो जुएल-हिज्जा का चांद नजर आने के बाद अपने बाल और नाखुन, अपने जिस्म के किसी हिस्से से कोई चीज ना ले (निकले), इस की दलील इमाम बुखारी रह. के अलावा मुहद्दिसीन की एक जमात की रिवायत करदा हदीस है: उम्मे

औरत का किन लोगों से परदा ना करना उचित है?

ro    अल्हम्दुलिल्लाह,  औरत अपने महरम मर्दों से परदा नहीं करेगी। और औरत का महरम वो है, जिस से इस का निकाह क़राबत दारी (करीबी खून का रिश्ता) की वजह से हमेशा के लिए हराम हो (मसलन बाप, दादा और इसे भी ऊपर वाले, बेटा पोता और इन की नाक, चाचा, मामू, भाई) , भतीजा, भांजा) या फिर रज़ा'अत (स्तनपान) के सबाब से निकाह हराम हो। [मसलन रजाई भाई, और रजाई बाप) या फिर मुशाहिरत (शादी) की वजह से निकाह हराम हो जाए। ज़ैल में (आला) हम ये मौजु बिल तफ़सील पेश करते हैं: ۞ नस्बी महरम: नस्बी तौर पर औरत के मेहरम की तफ़सील का बयान सूरह अल-नूर की जगह दी हुई आयत में बयान है: फ़रमान ए बारी ता'आला है: और अपनी जीनत जाहिर ना करो सिवाए इस के जो जाहिर है, और अपने गिरेबानों पर अपनी ओढ़नी (शॉल, दुपट्टा) डाले रखें, और अपनी ज़ीनत जाहिर ना करो सिवाए अपने खविंदो के या अपने वालिद के या अपने ससुर के या अपने लड़कों के या अपने ख़ौविंद के लड़कों के या अपने भाइयों के या अपने भाइयों के या अपने मेल जोल की औरतों के या गुलामों के या ऐसे नौकर चाकर मर्दों से जो शेहवात वाले ना हों, या ऐसे बच्चों के जो 'औरतों के पर्दे की बातों से मु

रहीम नाम रखना कैसा है?

ro    हमारे मुआशरे में ये ग़लत फ़हमी है कि रहीम या करीम या इसी तरह दूसरे नाम नहीं रख सकते क्योंकि ये अल्लाह का नाम है। आइए देखते हैं इसकी हकीकत क्या है। अल्हम्दुलिल्लाह.. रहीम या करीम या रहमान या इसी तरह का दूसरा नाम रखने में कोई हर्ज नहीं है। ये बात सही नहीं है कि ये तमाम अल्फ़ाज़ अल्लाह के नाम है। बाल्की अल्लाह का नाम अर-रहमान, अर-रहीम और अल-करीम है। और इन डोनो अल्फ़ाज़ यानि रहीम और अर-रहीम में बोहत फर्क है। एक जिंदगी से ये समझ लें कि रहीम इस्म-ए-नक्रह (सामान्य संज्ञा) है और अर-रहीम इस्म-ए-मार्फा (व्यक्तिवाचक संज्ञा) है। तो इस्म-ए-नक्रह से इस्म-ए-मरफ़ा बनने का तरीका ये है कि किसी भी इस्म पर अलिफ़-लाम लगा देने से वो इस्म-ए-मरफ़ा बन जाता है। अल्लाह का नाम इस्म ए मार्फ़ा से ही होगा। रहमान इस्म ए नकराह हुआ लेकिन अर-रहमान इस्म ए मारफह हुआ। रहमान का मतलब होता है रहम करने वाला। तो ये कोई भी हो सकता है जो रहम करे. एक इंसान अगर रहम करता है तो उसे भी रहमान कह सकता है। लेकिन अर-रहमान सिर्फ अल्लाह हो सकता है। कुरान में खुद नबी ﷺ को रहीम कहा गया है अल्लाह पाक फरमाते है, لَقَدْ جَاءَكُمْ رَسُولٌ م

क्या सिर्फ कब्र में पता चलेगा कि हक पर कौन है?

ro    उन लोगों ने अपने पास इल्म आजाने के बाद भी इख्तिलाफ किया। (और वो भी) आपस की जिद-बहस के कारण से और अगर आप के रब की बात ऐक वक्त मुकर्रर तक के लिए पहले ही से करार पा गई हुई नहीं होती तो यकीनन उन का फै़सला हो चूका होता और जिन लोगों को उन के बाद किताब दी गई है वो भी इस की तरफ से उल्जन वाले शक में पड़े हुए हैं। कुरान, ४२:१४ इस आयत में भी उनलोगों के लिए भी लम्हा ए फ़िक्रिया है जो ये कहता है कि हमें तो कब्र में ही या आख़िरत में हाय पता चलेगा कि हक क्या है या कौन सही है या कौन ग़लत है। हम मसे बोहत लोग ये कहते हैं। इसकी कोई वजह हो सकती है और इसकी एक वजह ये भी होती है कि हमारे कुछ भाइयों के पास तहकीक करने का वक्त नहीं होता। हम सोशल मीडिया, नौकरी और अपने परिवार को तो वक्त दे सकते हैं लेकिन दीन सीखें/समझने के लिए वक्त नहीं है हमारे पास। तो अल्लाह ऊपर की आयत में लोगों को डांटते हुए कहते हैं कि तुम्हारे पास कुरान है आ जाने के बाद भी तुम ये कहते हो कि पता नहीं क्या हक है। जब कुरान को तो अँधेरे में एक रोशनी कहा गया है खुद कुरान में। ये वैसी ही बात हुई कि हम किसी रेस्ट्रो में जाते हैं और हमें मेन्य

अकेले नमाज पढ़ने वाले शक्स के लिए अज़ान और इकामत कहना

ro    أَخْبَرَنَا مُحَمَّدُ بْنُ سَلَمَةَ، قَالَ حَدَّثَنَا ابْنُ وَهْبٍ، عَنْ عَمْرِو بْنِ الْحَارِثِ، أَنَّ أَبَا عُشَّانَةَ الْمَعَافِرِيَّ، حَدَّثَهُ عَنْ عُقْبَةَ بْنِ عَامِرٍ، قَالَ سَمِعْتُ رَسُولَ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم يَقُولُ ‏ "‏ يَعْجَبُ رَبُّكَ مِنْ رَاعِي غَنَمٍ فِي رَأْسِ شَظِيَّةِ الْجَبَلِ يُؤَذِّنُ بِالصَّلاَةِ وَيُصَلِّي فَيَقُولُ اللَّهُ عَزَّ وَجَلَّ انْظُرُوا إِلَى عَبْدِي هَذَا يُؤَذِّنُ وَيُقِيمُ الصَّلاَةَ يَخَافُ مِنِّي قَدْ غَفَرْتُ لِعَبْدِي وَأَدْخَلْتُهُ الْجَنَّةَ ‏"‏ ‏ ये रिवायत किया गया है कि उक़बाह बिन 'आमिर र.अ. ने कहा कि मैंने रसूलुल्लाह ﷺ से ये कहते हुए सुना की “तुम्हारा रब उस चरवाहे (चरवाहे) से खुश होता है जो (अकेला) पहाड़ की चोटी पर नमाज के लिए अजान कह कर नमाज अदा करता है, चुनन्चे अल्लाह अज्जवाजल फरमाते हैं, मेरे इस बंदे को देखो ये अजान और इकामत कह कर नमाज़ अदा करता है और मुझसे डरता है। मैं तुम्हें गवाह बनाता हूं के मैंने  इसे बख्श दिया और इसे जन्नत में दाखिल कर दिया। सुनन नसाई, किताब अल अज़ान, हदीस- ६६७ . इसे दारुस्सलाम ने सही क

क्या जमात से तरावीह पढ़ना बिद्दत ए हसना है?

ro    अब्दुर रहमान बिन अब्दुल कारी र.अ. कहते हैं कि मैं एक बार रमादान की रात उमर र.अ. के साथ मस्जिद आया और पाया कि लोग अलग-अलग जमात में पढ़ रहे हैं। एक आदमी अकेला पढ़ रहा है और एक आदमी छोटे से जमात में उसके पीछे पढ़ रहा है। तो उमर र.अ. ने कहा कि मेरे राए में ये बेहतर होगा कि एक कारी की इमामत में सब को जमा करदु। तोह उनकहोंने सबको उबै बिन का'ब के पीछे जमा करने का अपना मन बनाया। फ़िर दूसरी रात मैंने उन के साथ फिर गया और (देखा की) लोग क़िरात करने वाले के पीछे पढ़ रहे हैं। और इसपर उमर र.अ. ने कहा, "ये एक अच्छी बिद्दत है"। साहिह अल-बुखारी, हदीस- २०१०। हमारा जवाब: इस हदीस में जो बिद्दत का लफ़्ज़ इस्तमाल किया है उमर र.अ. ने ये लुग्वी मान'नो में है कि शराई बिद्दत। क्यूकी उमर र.अ. और अबू बक्र र.अ. के ख़िलाफ़त में जमात से नहीं पढ़ी जाती थी तरावीह। इसलिए उन्हें कहा कि ये अच्छी बिद्दत है मतलब ये अच्छा नया काम है जो हमें वक्त नहीं हो रहा था जब तक के उमर र.अ. ने इसका हुक्म न दे दिया। और अगर अब भी समझ में न आए तो ये सोचे कि क्या ये वाकाई शराई बिद्दत थी? ये शराई बिद्दत कैसी हो सकती है