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हमारा जवाब:
इस हदीस में जो बिद्दत का लफ़्ज़ इस्तमाल किया है उमर र.अ. ने ये लुग्वी मान'नो में है कि शराई बिद्दत। क्यूकी उमर र.अ. और अबू बक्र र.अ. के ख़िलाफ़त में जमात से नहीं पढ़ी जाती थी तरावीह। इसलिए उन्हें कहा कि ये अच्छी बिद्दत है मतलब ये अच्छा नया काम है जो हमें वक्त नहीं हो रहा था जब तक के उमर र.अ. ने इसका हुक्म न दे दिया। और अगर अब भी समझ में न आए तो ये सोचे कि क्या ये वाकाई शराई बिद्दत थी? ये शराई बिद्दत कैसी हो सकती है जब रसूलअल्लाह ने अपनी जिंदगी में जमात से तरावीह पढ़ी थी। ये रही अहादीस:
उर्वा बिन ज़ुबैर रदी अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि आयशा रदी अल्लाहु अन्हा ने फरमाया एक बार (रमजान की) आधी रात में रसूलल्लाह ﷺ मस्जिद में तशरीफ ले गए और वहां तरावीह की नमाज पढ़ी, सहाबा रदी अल्लाहु अन्हुमा भी आपके साथ नमाज़ में शामिल हो गएं, सुबह हुई तो उनहोंने उसका चर्चा किया फिर दूसरी रात में लोग पहले से भी ज्यादा शामिल हो गए, और आप के साथ नमाज़ पढ़ी। दूसरी सुबह को और ज़्यादा चर्चा हुई तो तीसरी रात उस्से भी ज़्यादा लोग जमा हो गए, आप ﷺ ने (उस रात भी) नमाज पढ़ी और लोगो ने आपकी पैरवी की, छोटी रात को ये आलम था कि मस्जिद में नमाज पढ़ने आने वालों के लिए जगह भी बाकी नहीं रही (मगर उस रात आप नमाज के लिए बाहर ही नहीं आए) भारी सुबह नमाज के लिए तशरीफ लाए और जब नमाज पढ़ ली तो लोगों की तरफ मुतवज्जा हो कर शहादत के बाद फरमाया अम्मा बाद तुम्हारे यहां जामा शहद का मुझे इल्म था लेकिन मुझे इसका खौफ हुआ कि ये नमाज़ तुम पर फ़र्ज़ न हो जाए और फिर तुम उसे अदा न कर सको और आप ﷺ की वफ़ात के बाद भी यहीं कैफियत राही (लोग अलग-अलग तरावीह पढ़ते रहे)।
क्या हदीस से बिल्कुल वाज़ेह हो जाता है कि ये अमल बिद्दत नहीं था क्योंकि ये पहला ही रसूल अल्लाह अपनी जिंदगी में ये अमल कर चुके थे। बिद्दत नई बात को कहते हैं जो पहले से ही किया गया है उसको दोबारा करने को नहीं।
और वो एक और बात कहते हैं कि रसूलअल्लाह ने 3 दिन पढ़ा था लेकिन उमर र.अ. ने पूरा रमज़ान, तो इसलिए ये बिद्दत हुई। इसका जवाब ये है कि अगर रसूलल्लाह ने कोई अमल कर के छोड़ दिया और फिर उसे सहाबाओं ने किया तो सुन्नत को जिंदा करना कहते हैं बिद्दत करना नहीं। बिद्दत नई चीज़ को कहते हैं दीन में जिसका वुजूद न हो पहले। और उमर र.अ. ने कोई नई चीज नहीं करी थी अनहोन रसूलअल्लाह ﷺ की सुन्नत को जिंदा किया था। इसे ये भी पता चला कि अगर कोई मुर्दा सुन्नत जिंदा करता है और उसे अच्छी बिद्दत कहता है तो उसमें कोई हर्ज नहीं और ये उमर आर.ए. की सुन्नत होगी. पर जिस चीज़ का वुजूद ही न हो और उसे बिद्दत ए हसना कहे तो रसूलल्लाह ﷺ ने बिद्दत की किस्मत नहीं बताई उनको साफ अल्फ़ाज़ो में कहा है कि हर बिद्दत एक गुमराह है। अब अहले बिद्दत चाहे जितनी कोशिश करले 'हर बिद्दत' का मतलब 'हर बिद्दत' ही होगा बुरी बिद्दत या अच्छी बिद्दत नहीं। और हमें भी कोई एतराज नहीं होगा अगर कोई मुर्दा सुन्नत को जिंदा करे और उसे बिद्दत ए हसना नाम देकर उस पर अमल करने लगे। तो फ़िर ये वाज़ेह हो गया कि उमर र.अ. ने जो इसे बिद्दत ए हसाना कहा है वो एक मुर्दा सुन्नत को जिंदा कर के कहा है ना कि दीन में नया तारिका इजाद कर के।
अल्लाह से दुआ है कि वो हमें बिद्दत से महफूज रखे और सुन्नत पर अमल करने की तौफीक अता करे।
साहिह बुखारी, खंड ३, हदीस २०१२ ।
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