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हुज़ूर ﷺ के वफ़ात का वक़्त का बयान

ro    हुज़ूर ﷺ के वफ़ात का वक़्त: हज़रत:- उमर फारूक र.अ.:– वफ़ात की ख़बर सुन केर इनके होश जाते रहे और वो खरे हो केर कहने लगे “कुछ मुनाफ़ेक़ीन समझते हैं रसूलुल्लाह सल्लाहो अलिहे वसल्लम की वफ़ात हो गई लेकिन हकीकत ये है के रसूलुल्लाह ﷺ की वफ़ात नहीं हुई, बलके आप अपने रब के पास तशरीफ ले गये हैं। जिस तरह मूसा बिन इमरान अली सलाम तशरीफ़ ले गए थे और अपनी क़ौम से ४० रात गायब रह केर उनके पास फिर वापसी आ गए थे, हलाके वापसी से पहले कहा जार आहा था के वो इंतकाल कर गए हैं।” खुदा की कसम रसूलुल्लाह भी पलट कर आएंगे और उन लोगों के हाथ पाओ काट डालेंगे जो समझते हैं कि आप सल्लाहो अलिहे व सल्लम की मौत हो चुकी है। हज़रत अबू बक्र र.अ. :- मेरे मां बाप आप पर कुर्बान, अल्लाह आप पर २ मौत जमा नहीं करेगा, जो मौत आप पर लिख दी गई है वह आप को आचुकी। हमारे बाद अबू बक्र बहार तशरीफ़ लाए हमें वक़्त भी हज़रत उमर र.अ. लोगो से बात केर रहे थे, हज़रत अबू बक्र ने उन से कहा उमर बैठ जाओ, हज़रत उमर र.अ. ने बैठने से इंकार कर दिया। सहाबा हज़रत उमर को चोर केर हज़रत अबू बक्र की तरफ मुतवज्जा हो गए। हज़रत अबू बक्र ने फ़रमाया। अम्मा बाद&#
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नमाज़ ए वित्र की दुआ ए क़ुनूत में हाथ उठ जाए या नहीं?

ro    नमाज़ ए वित्र की दुआ ए क़ुनूत में हाथ उठे के बारे में कोई मार्फ़ू रिवायत नहीं है लेकिन हदीस के किताबों में बाज़ सहाबा ए करम र.अ. के आसार मिलते हैं. इस्लामी शरीयत में जब कोई बात रसूलुल्लाह से ना मिले और सहाबा से वो अमल मिल जाए बिना किसी दूसरे सहाबा का एतराज़ किया तो हमें अमल को अपने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन बेहतर यहीं होगा कि हाथ बंद के दुआ ए क़ुनूत पढ़ी जाए क्योंकि हाथ उठाने की कोई मार्फू हदीस नहीं है। इस्के मुतल्लिक शेख जुबैर अली ज़ई का रिसाला अल हदीस जो कि रजब १४३० हिजरी को शाया हुआ था उस रिसाले के सफा नं. १२ पर एक सवाल किया गया था कि, नमाज़ ए वित्र में रुकू से क़ब्ल हाथ उठे बिना क़ुनूत पढ़ने की क्या दलील है? जिसके जवाब में शेख जुबैर अली ज़ई ने फरमाया था, 'नमाज़ ए वित्र में रुकू से पहले क़ुनूत पढ़ने का ज़िक्र सुनन दरकुटनी (२/३२, हदीस- १६४४,वा सनद हसन) और सुनन नसाई (१,२४८ हदीस- १७००) में है। देखिये मेरी किताब हिदायतुल मुस्लिमीन (हदीस- २८ फैदा- ३)। क़ुनूत ए वित्र में हाथ उठना किसी सरीह मारफू हदीस से साबित नहीं है।' मालूम हुआ कि नमाज़ ए वित्र में रुकू से पहले हाथ उठे बिना

काबा/किबला के तरफ पैर करने के अहकाम

ro    अल्लाह ﷻ कुरान में फरमाते है: ..और हमने ये किताब नाज़िल फ़रमाई है जिसमें हर चीज़ का शफ़ी बियान है और हिदायत और रहमत और ख़ुशख़बरी है मुसलमानों के लिए। (अल इसरा:८९) ۩ रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया, "सबसे बेहतर कलाम अल्लाह की किताब है और सबसे बेहतरे तारीख़ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तारीख़ा है..." सहीह बुखारी, हदीस-३८२  क़ुरान और सही हदीस में कहीं भी लिखा नहीं है कि काबा की तरफ जोड़ा नहीं जाना चाहिए। अगर आप सही हदीस पढ़ेंगे तो हमें मालूम होगा कि रसूलल्लाह ﷺ के जमाने में सहाबा काबा पर चढ़ कर अज़ान देते थे। (अल-हदीस) यहां तक ​​कि सही हदीसों में अता है कि रसूलअल्लाह ﷺ ने काबा के अंदर नमाज पढ़ी। और जाहिर सी बात है कि जब काबा के अंदर आप नमाज पढ़ेंगे और जब सजदे में जाएंगे तो खुद-बखुद एपी का जोड़ा कबा के तरफ इशारा करेगा। ۩ ये रिवायत किया गया था कि इब्न उमर ने फरमाया, “रसूलुल्लाह ﷺ काबा के अंदर गए और वो बहार आने वाले थे, जब मैंने कुछ सोचा, इसलिए जल्दी आया और मैंने रसूलल्लाह ﷺ को बाहर आते देखा। मेन बिलाल र.अ. से पूछा: क्या रसूलल्लाह ने काबा के अंदर नमाज पढ़ी? अनहोने कहा 'हा, द

वो दुरी जिस से मस्जिद में नमाज पढ़ना फ़र्ज़ हो

ro    अल्हम्दुलिल्लाह.. मस्जिद के करीब रहने वाले पर नमाज़ बज़ामात फ़र्ज़ है और दूर रहने वाले पर फ़र्ज़ नहीं है। और सुन्नत ए नबवी में ये फ़ासला अज़ान की आवाज़ सुनाई देने पर मुन्हासिर (निर्भर) है। यानी अगर अजान की आवाज सुनाई देती है तो जमात से पढ़ना फर्ज होगा वरना नहीं और इस मुराद ये है कि मस्जिद में होने वाली अज़ान बिना लाउड स्पीकर के सुनाई दे, और मुअज़्ज़िन अज़ान बुलंद आवाज़ से दे, और फ़िज़ा में खामोशी और सुकून हो जो सुनने पर असर अंदाज़ होती है। ۩ अबू हुरैरा र.अ. फरमाते हैं, एक नबीना साहबी (अब्दुल्ला इब्न ए उम्मे मकतूम) आए, इन्हें अपने अंधे होने का उजार पेश करके अपने घर पर नमाज पढ़ने की इजाज़त चाहिए क्योंकि इन्हें कोई मस्जिद में लेकर आने वाला नहीं था, तो नबी ने इनको इजाज़त दे दी, जब वो वापस चले तो आप ने बुलाकर पूछा, 'क्या आप अज़ान सुन सकते हैं?' अब्दुल्ला ने कहा: जी हा! आप ﷺ ने फरमाया, 'तो फिर नमाज़ में हाज़िर हो।' सहीह मुस्लिम, किताब अल मसाजिद ﴾५ ﴿, हदीस- १४८६. ۩ इब्न ए अब्बास र.अ. से रिवायत है कि रसूलअल्लाह ﷺ ने फरमाया, 'जो शक्स अजान सुन कर मस्जिद में जमात के लिए

ताज़ीम के लिए खड़े होने के शरई अहकाम

ro    जहां तक ​​किसी के लिए खड़े होने का सवाल है तो ये दो हिसो में तकसीम किया जाएगा: १. किसी को खुशामदीद करने के लिए खड़े हो जाना २. किसी की ताज़ीम के लिए खड़े हो जाना किसी को खुशामदीद करने के लिए खड़े हो जाना: क्या अमल की इजाज़त है बल्की ये सुन्नत है। सुनन तिर्मिधि, वॉल्यूम। १, किताब ४६, हदीस ३८७२ में है कि रसूल अल्लाह फातिमा र.अ. के लिए खड़े होते थे और फातिमा र.अ. रसूलअल्लाह के लिए खादी होती थी। तिर्मिधि का स्रोत: http://sunnah.com/urn/637600 और एक हदीस है सही अल बुखारी हदीस ३०४३ में जिसका लिखा है कि साद र.अ.जब फैसला करने आए थे बानी कुरैज़ा के काबिले पर तब रसूलल्लाह ने हुक्म दिया साहबाओ को उनके लिए खड़े होने के लिए। सहीह अल बुखारी का स्रोत:http://sunnah.com/buhari/56/249 और सही अल बुखारी में एक और हद है जो कहती है कि तल्हा र.अ. ने खड़े हो कर दूसरे सहाबा कब इब्न मलिक र.अ. से हाथ मिलाया, जब उन्हें अल्लाह से तौबा की थी और अल्लाह ने उनकी तौबा कुबूल की थी। साहिह अल-बुखारी ४४१८ साहिह अल बुखारी का स्रोत: http://sunnah.com/buhari/64/440 याहा ये पता चलता है कि एक सहाबा दूसरे सहाबा के लिए खड़े

नमाज पढ़ते वक्त पैंट को समेटने (फोल्ड करने) का बयान

ro    बोहत सी हदीस है जो नमाज के वक्त पैंट को मोड़ने से मना करती है। इब्न अब्बास र.अ. रिवायत करते हैं कि रसूलल्लाह ﷺ ने फरमाया: 'मुझे हुक्म दिया गया है के मुख्य ७ हदियों पर सजदा करूं पेशानी और आप ने हाथ से नाक की तरफ इशारा किया दोनों हाथों दोनों घुटनों और दोनों क़दमों के पंजों पर और (ये के हम नमाज़ में) अपने कपड़ों और बालों को  इखट्टा ना करें।' (बुखारी: अल अज़ान 812 - मुस्लिम: अल सलाह 490)। कपड़ो को इखट्टा करने का मतलब यह है कि कपड़े को मोड़ना हमें जमीन पर गिरने से रोकने के लिए जब कोई सजदा करता है। इमाम अन-नवावी फ़रमाते हैं: उलेमाओ का इसपर इत्तिफाक है कि अपने कपड़े, आस्तीन वगैरा मोड़ना की इजाज़त नहीं है। उलमाओ के इज्मा से इस चीज़ की इजाज़त नहीं है; ये मकरूह है और साथ-साथ ये ना-पसंददा है। तो अगर कोई शक्स इस हालत में नमाज पढ़ता है तो उसने जैसा कुछ गलत किया है लेकिन फिर भी उसकी नमाज हो जाएगी। इब्न अल-मुंदिर रिवायत करते हैं कि जो ऐसा करता है तो अपनी नमाज़ दोहरानी चाहिए और उनको ये रए अल-हसन अल-बसरी से रिवायत की है। अंत उद्धरण तुहफ़त अल-मिन्हाज, २/१६१-१६२ में ये कहा गया है: जो नमाज प

नखुन तराशने के बाद दफ़न करना

ro    सावल: क्या ये सही है कि नाखुन तराशने के बाद फेंकना हराम है और क्या इन्हें दफ़न करना ज़रूरी है? जवाब:- नाख़ून तराशना मशरू है क्योंकि नकुन तराशना फ़ितरती क़हसलात में शामिल होता है और तराशने के बाद इन्हें फेंकने में कोई हर्ज नहीं। और इन्हें दफ़न करना ज़रूरी नहीं है। और अगर वो इसे कूड़ेदान में फेंक दे, या फिर दफ़न करदे तो इसमें कोई हर्ज नहीं। (फतवा अल-लजनाह अद-दायमा ली बुहुथ अल-इल्मियाह वाल इफ्ता (५/१७४)। अक्सर हमारे भारत, पाकिस्तान और इनसे जुड़े हुए मुल्कों में पाया जाता है कि नाखून या बाल को सिर्फ दफन करना चाहिए इसे ऐसे ही कहीं भी फेंकना चाहिए। और कुछ लोग ये भी कहते हैं कि मगरिब के बाद ये चीज़ ना कटी जाए। ये महज़ एक ग़लत फ़हमी है। दीन ए इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन अगर ये डर हो के ये नाखुन या बाल जादूगरों के हटे चढ़ जाएंगे तो फिर इन्हें वहां फेंके या दफ़न करे जहां से ये उनके हाथ ना लगे। (वल्लाहु आलम)