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अल्हम्दुलिल्लाह..
भेड़, बकरी और मेंढे की एक कुर्बानी आदमी और इसके पहले वा अयाल वगैरा के लिए काफी है।
इस्की दलेल मुंदरजा ज़ैल हदीस है;
आयशा आर.जेड. बयान करती है के नबी ﷺ ने दो काले पांव, काली आंखों वाले मेंढे कुर्बानी करने का हुक्म दिया, और नबी ﷺ ने इन्हें फरमाया, "ऐ आयशा चूड़ी लाना (मुझे चूड़ी पकड़ो) तू मैंने इन्हें चूरी दी इनहोन वो चूड़ी ली और मेंधा पकड़ कर लिटाया फिर इसे ज़बाह किया (ज़बाह करने की तैयारी करने लगे) और फरमाया
بسم الله ، اللهم تقبل من محمد ، وآل محمد ، ومن أمة محمد ثم ضحى به’
बिस्मिल्लाहि अल्लाहुअकबर, ऐ अल्लाह मुहम्मद ﷺ और आले मुहम्मद और उम्मत ए मुहम्मद ﷺ की जानिब से कुबूल फरमा और फिर इसे जुबा कर दिया"
सहीह मुस्लिम: 1967.
अता बिन यासर रिवायत करते हैं कि मैंने अबू अय्यूब अंसारी र.अ. से पूछा कि रसूलअल्लाह के जमाने में कुर्बानी कैसे हुई थी? अन्होने फ़रमाया (के नबी ﷺ के दौर में) एक शख़्स अपना और अपने घर (परिवार) वालो की तरफ से एक बकरी की कुर्बानी देता था, वो खाते और खिलाते थे, यहाँ तक के लोग (ज़्यादा कुर्बानी पर) फ़क़र करने लगे और अब ये सूरत हाल हो गई है जो देख रहे हो (यानी लोग एक से ज्यादा कुर्बानी करने लगे)।
इसे इमाम तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है और इमाम तिर्मिज़ी र.ह ने इसे हसन सही कहा है (हदीस संख्या: 1505, बलिदान की किताब।), और अल्लाम्मा अल्बानी र.ह ने सही सुनन तिर्मिज़ी में इसे सही क़रार दिया है, देखे सही सुनन तिर्मिज़ी, हदीस - 1216.
इमाम तिर्मिज़ी ने इस हदीस के बाद फरमाया है कि एक घर के तरफ से एक कुर्बानी होगी ये कव्वाल इमाम अहमद इब्न हम्बल और इमाम इशाक बिन राहवैह की भी है।
अबू सरीहा र.अ. रिवायत करते हैं, सुन्नत का तारिका मालूम हो जेन के बाद भी हमारे घरवालों ने हमें ज्यादा (ज्यादा कुर्बानी) पर मजबूर किया, (जब के रसूलल्लाह ﷺ के जमाने में) ये हाल था के एक घर वाले एक या दो बकरो की कुर्बानी करते थे . और अब (अगर हम एक करते हैं) तो हमारी पड़ोसन हमें कंजूस कहते हैं।
सुनन इब्न माजाह, वॉल्यूम। 4, पुस्तक 26, हदीस 3148। शेख जुबैर अली ज़ई द्वारा सहीह के रूप में वर्गीकृत।
नोट: क्या हदीस में रवी को शक है कि रसूलअल्लाह ﷺ के जमाने में एक या दो कुर्बानी हुआ करती थी लेकिन ऊपर की दूसरी हदीस से पता चलता है कि वो एक ही कुर्बानी हुआ करती थी रसूलअल्लाह ﷺ के जमाने में।
लिहाजा जब कोई शक्स भेद, बकरी या मेंधा जुबा करता है, तू वो एक ही इसके और इसके एहेल वा अयाल और अपने घर वालों के जानिब से वो नियत करे काफी है, और अगर वो कुछ भी नियत ना करे बलके इसे आम राखे या खास करदे तू इसके और इसके घर वालों में हर वो शख्स दखिल हो जाएगा जो अरफ या लोगहत के लिहाज़ से इन अल्फ़ाज़ में शामिल होता है।
अरफ में वो लोग घर वालों में शामिल होते हैं जिनकी वो अलत करता है यानी बीवीयां, औलाद और रिश्तेदार और लुघाट में हर करीब शामिल है इसकी औलाद और इसके वालिद की औलाद और बाप दादे की औलाद वगैरा।
और ऊंट या गाए का सातवा(7वां) हिसा इसे काफी है जिसके लिए एक बकरा वगैरा काफी होता है, अगर किसी ने अपने और अपने घर वालों की जानिब से ऊंट या गए का सातवा(7वां) इसका कुर्बानी किया तू ये सब की जानिब से काफ़ी होगा इस्लिये के नबी ﷺ ने हदी (यानी हज की कुर्बानी) में गाये और ऊंट का सातवा हिसा एक बकरी वगैरा के क़याम मुकाम किया है, तू इस तरह कुर्बानी में भी काफी होगा क्योंकि इसमे हज और आम कुर्बानी में कोई फर्क नहीं .
एक बकरी, मेंधा वागैरा दो शख्सो या ज्यादा के लिए काफी नहीं के वो डोनो इसे खत्म कर कुर्बानी करे और इसमें शरीक होजाए, क्योंकि इसका किताब वा सुन्नत में कोई वजूद नहीं मिलता।
और इस तरह की ऊंट और गाए में अनंत अश्क शरीक नहीं हो सकते। इस्ली के इबादत तौकीफी होती है (यानी इसमें कोई भी कमी व बेशी नहीं की जा सकती) इसकी कैफियत और कमियात मेहदुदा में कोई कामी व बेशी नहीं हो सकती, ये सवाब में शिरकत के अलावा है, क्यूंके सवाब में बिला हसर शिरकत की नस मिलती है जैसा के बयान भी हो चुका है।
वल्लाहु आलम.
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