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أَخْبَرَنَا مُحَمَّدُ بْنُ سَلَمَةَ، قَالَ حَدَّثَنَا ابْنُ وَهْبٍ، عَنْ عَمْرِو بْنِ الْحَارِثِ، أَنَّ أَبَا عُشَّانَةَ الْمَعَافِرِيَّ، حَدَّثَهُ عَنْ عُقْبَةَ بْنِ عَامِرٍ، قَالَ سَمِعْتُ رَسُولَ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم يَقُولُ " يَعْجَبُ رَبُّكَ مِنْ رَاعِي غَنَمٍ فِي رَأْسِ شَظِيَّةِ الْجَبَلِ يُؤَذِّنُ بِالصَّلاَةِ وَيُصَلِّي فَيَقُولُ اللَّهُ عَزَّ وَجَلَّ انْظُرُوا إِلَى عَبْدِي هَذَا يُؤَذِّنُ وَيُقِيمُ الصَّلاَةَ يَخَافُ مِنِّي قَدْ غَفَرْتُ لِعَبْدِي وَأَدْخَلْتُهُ الْجَنَّةَ "
ये रिवायत किया गया है कि उक़बाह बिन 'आमिर र.अ. ने कहा कि मैंने रसूलुल्लाह ﷺ से ये कहते हुए सुना की
“तुम्हारा रब उस चरवाहे (चरवाहे) से खुश होता है जो (अकेला) पहाड़ की चोटी पर नमाज के लिए अजान कह कर नमाज अदा करता है, चुनन्चे अल्लाह अज्जवाजल फरमाते हैं, मेरे इस बंदे को देखो ये अजान और इकामत कह कर नमाज़ अदा करता है और मुझसे डरता है। मैं तुम्हें गवाह बनाता हूं के मैंने इसे बख्श दिया और इसे जन्नत में दाखिल कर दिया।
सुनन नसाई, किताब अल अज़ान, हदीस- ६६७ . इसे दारुस्सलाम ने सही करार दिया है।
۩ इमाम शफ़ी फ़रमाते हैं,
“अगर एक शख़्स अज़ान और इक़मत कहने को नज़रअंदाज़ करता है जब वो नमाज़ अकेला पढ़ रहा हो या जमात में, तो माई इसे मकरूह (ना-पसन्दिदा) समझता हूं। लेकिन अगर हमारे शक्स ने अज़ान या इक़ामत कहे बिना नमाज़ अदा की है तो उसको अपनी नमाज़ दोहराने की ज़रूरत नहीं है।”
किताब अल-उम्म अल-शाफ़ेई द्वारा, जिमा अल-अज़ान, बाब अल-अज़ान वल-इक़ामा लिल-जाम बयाना अल-सलातायन।
۩ शेख मुहम्मद सालिह अल-मुनज्जिद फ़रमाते हैं,
“उमूमी दलैल के बिना पर मुनफरीद (व्यक्तिगत) शेखों के लिए अज़ान और इकामत कहना मुस्तहब है।” (स्रोत)
तो नतिजा ये निकला कि अकेले नमाज पढ़ने वाले शक्स के लिए अज़ान देना और इकामत कहना मुस्तहब अमल है।
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